Popular Posts

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

गलिचा

कटी फटी ज़िन्दगी के कई हिस्से मिल गए है
एक सर्द रात में इन्हे मखमली नज़्म में सिल दूंगा
उल्झे  रिश्ते के सीधे धागो से यादों के बटन ताकूंगा
कुछ अपने आंसुओं के छल्लों कि माला पिरोऊँ गा
अपने दर्द से ढाक दूंगा मैं  फटे हिस्से
तुम्हारी आँखों के बादामी  रंग मैं इसमें भरूंगा
रात गर काली गयी तो बादाखाने के
कुछ रंग भी आयेंगे नज़र
जो गर रही चांदनी तो फिर
फिर सब इसे  रिश्तों का
गलिचा समझ बैठंगे 

ख़त

तेरी खूशबू में बसे ये  ख़त
तेरी यादों कि आँधियों को समेटे ये ख़त
तेरी पलकों कि नमी से भीगे ये ख़त
तेरे मेरे बीच में केवल ये ख़त
अब जलाकर इन्हे कुछ न हासिल होगा
थोडा कुछ होगा भी तो बस धुआं होगा। 

बेक़रारी है

कैसी उलझन है ये कैसी बेक़रारी है
दिन तो गुज़र  जाता है यूँ ही
पर ये एक रात बहुत  भारी है

 मुद्दतों से मैंने कोई बाज़ी
खेली ही नहीं पर ज़िन्दगी
 यूँ ही रोज़ रोज़ हारी है

आइना देखा तो जाना आज
कि एक वक़्त गुज़र गया
तमाम उम्र यूँ ही तनहा गुज़ारी है

सीने में पहले कुछ अरमान सुलगा रखे थे
अब होटों पे रखे है और सुलगना जारी है

वो नशे भी अब खाली होकर कांच हो गए
बेक़रारी है बेक़रारी है बेक़रारी है

सोमवार, 24 जून 2013

एक और नमाज़ी डूब गया

इबादतगाह में देखो एक और नमाज़ी डूब गया
दुआ मेरी भी कबूल हुई, एक गैर समाजी डूब गया

कैसे मंदिर, कैसी मस्जिद, जगह सब ठेकेदारों की है
पाप धोते धोते वो, एक और रिवाजी डूब गया

उमड़ते ये सैलाब नहीं, ये ऊपर वाले की बोली है
बाकि तो सब समझ गए थे, वो एक न-समाझी डूब गया 

सैलाब खुदा के भी घर में

खुदा के रास्ते पे यूँ ही  मत चला करो
किसी शाम हम से भी मिला करो 

आते हैं सैलाब खुदा के भी घर में 
तुम शामों को अक्सर,  मयकदों में मिला करो

अक्सर याद आती है वो,  गर इबादत के दर्मियान
कर के वजू फिर तुम, उसके ही सजदे किया  करो

जो तुम सब को दिखलाते हो, वो तुम तो नहीं कोई और है
खुद तुम, खुद बनकर रहा करो, जब तुम  मुझ से मिला करो










सिगरेट

सर्द हवाओं में उड़ती 
मेरे सिगरेट की  चिंगारियाँ 
अक्सर मुझ से ही 
उलझ जाया करती है 
मांगती है हिसाब कभी मेरी 
साँसों का और कभी 
मेरी सांस ही बन 
जाया करती है 

पुराने अखबार सा 
बिछाया था तुमने
मुझको अपने जीवन में 
ये चिंगारियां अब  अक्सर 
उस अखबार को 
जलाया करती है 

ये तारीखों की 
फितरत है की वो 
रोज़ बदल जाया करती है   
मेरी सारी चेतना अब 
तुमको केलिन्डर सा 
पाया करती है 

माचिस की डब्बी 
पे बने गुलाब से 
दिल को बहलाना और 
खुलते ही डिब्बी 
माचिस की तीलियाँ 
मेरी सिगरेट जलाया करती है 


आज भी मैं बारिशों का इंतज़ार करता हूँ

आज भी बारिशों का 
मैं इंतज़ार करता हूँ 
तुम मिलोगी फिर  कभी 
किसी बारिश में भीगती 
यही दुआ मैं खुदा  से 
बार बार करता हूँ 

अचानक सी बारिश में 
भीगते से  दो बदन 
मौसमों से ऐसी 
साजिशों की 
दुआ मैं बार बार 
करता हूँ 

कुछ न हो दरमियाँ हमारे 
सिर्फ साँसों का सैलाब हो 
सिगरेट के धुंए जैसे 
उस पल की दुआ 
मैं बार बार 
करता हूँ 

आज भी मैं बारिशों का इंतज़ार करता हूँ 




सो सो तब तब होना है


 तुम्हारे ख्वाबों से मुझको 
 अक्सर नींद आ जाती थी 
आज तुम्हारे ख्वाबों ने मुझको 
 नींद से जगा दिया 
मेरे आँखों की नमी
अब तक सुखी थी नहीं
कि  तुम्हारे ख्याल ने 
फिर मुझको रुला दिया
दिल क जज्बातों को कैसे 
अल्फाजों में बयान करूँ 
दर्द के सिरहाने रखकर 
जज्बातों को सुला दिया 
सूखे हुए दिल को अब 
शराब में भिगोना है 
बमुश्किल मिली है मुझको राहत 
इसको अब नहीं खोना है
 जो जो जब जब 
लिखा है उसने 
सो सो तब तब 
होना है 

बुधवार, 24 अप्रैल 2013

खफा

बही हुई  ज़िन्दगी को थामकर
गुज़रे हुए पलों को बांधकर
रोज़ थोडा जीने का सामान
तुम्हारे पुराने खतों से निकालता हूँ
तुम्हारे साथ ही तो जी रहा हूँ
यही सोचकर सारे अरमान निकालता हूँ
रात के दूसरे पहर जब चाँद को देखता हूँ
तुम भी  कहीं देखती होगी इसे
सफ़ेद चादरों पे पड़ा यही सोचता हूँ
अच्छा हुआ की कोई कसम , वादा ,वफ़ा
निभाई न गयी
खुदा ने बनाया तुमको
पर तुम मेरे लिए बनायीं न गयी
सुबह के बुझते दिये
अपनी जली हुई बाती का
मुझसे हिसाब माँगते है
मैं तुमसे सवाल पूछता हूँ
वो मुझसे जवाब मांगते हैं
मेरे ख्यालों से होकर गुज़रने वाले
तेरा सफ़र ही मेरी ज़िन्दगी का
फलसफा है
कल मैं तुझसे खफा था
आज तू मुझसे खफा है

खफा 

बुधवार, 10 अप्रैल 2013

अधजले दिये

रात के अधजले दीयों, तुम्हे क्या नींद में ही मौत आ गयी
सुबह का सूर्य भी न तुम देख सके, क्या तुम्हारी आग ही तुमको खा गयी

शेष था तुम्हारा इंधन सुबह की ओंस में भीगा हुआ
थे वो रात के मुसाफिर या सुर्ख हवा तुम्हे बुझा गयी

मैं तो देर तक जागा  रहा की मौत तुम्हारी देख लूँ
पर अँधेरी सर्द रात में मुझको भी नींद आ गयी


गढ़करी

जब से मेरे दुश्मन मेरा दर्द बन गए
खाकर  "हकीमो" की दवा हम भी मर्द बन गए

बदनामी के चूहे मेरा नसीब कुतर गए
चढ़ के हम भी शौहरत की सीढ़ी निचे उतर गए

कुछ सीखा था हमने भी दो चार पैसे छापना
छपते छपते मशीनों  के पहिये उतर गए

मेरे पैसे के बाग को दीमक सी लग गयी
आस्तीन के साँप सारे बागों में भर गए

चाकर मेरे घर के सारे, अफसरी कर गए
गढ़ को लूट कर मेरे, मुझे गढ़करी कर गए

अब अगर आओ

मेरे पुराने ख़त लौटने के लिए मत आना
सिलवटे चादर से हटाने के लिए मत आना

अबकी आना तो ले जाना अपनी खुशबू मेरे बदन से
और मेरे हाथो  से तुमसे मिलने की  लकीरें भी ले जाना

ले जाना मेरे ख्वाब सारे
और मेरे  आँखों से सुखा हुआ नमक  भी ले जाना

मैंने सहेज के रखी है गर्म सांसों की आहटे
रसोई में चूल्हे की बुझी आग भी रखी है

अबकी आना तो अपने आँचल में समेट  के
ये घर बार भी ले जाना ...