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सोमवार, 22 जून 2015

जिंदा किताबें

जिस्म रूह पर ऐसे है
पुरानी किताब पर
जिल्द चढ़ी हो जैसे
उम्र बढ़ रही है
तो वो कोने जो
अक्सर अलमारी
से रगड़ खाते है
छिल जाते  हैं
इस जिल्द पर
वक़्त की जो
धूल जमी है
वो आंसुओं की
बरसात में जब
भीग जाती है
तो उससे पुराने
वक़्त की सौंधी
खुशबु आती है
भिगाकर जब
सूख जाता है
नमकीन पानी
तो इस जिल्द पर
झुर्रियां निकल आती है
वैसे तो इस
किताब को अब
कोई पढ़ता नहीं है
कभी कोई अपना
छू लेता है
चंद सफ़हे पलट
लेता है और फिर
वापस रख देता है
कई बार तहज़ीब से
अलमारी से बाहर
झांकती इन किताबों की
यूँ तो कोई उम्र नहीं होती
लेकिन ये बहुत जगह
घेरती है दराजों में
जब ये रद्दी भी
न हो घर से बाहर
जाने के लिए
तो अक्सर लोग
इन किताबों को
जला देते है

जिस्म रूह पर ऐसे है 
पुरानी किताब पर 
जिल्द चढ़ी हो जैसे 







बुधवार, 10 जून 2015

पेचीदा से रिश्तेदार

यार तुम बड़े ही पेचीदा से रिश्तेदार हो
मिलकर भी कभी मिलते नहीं
चहरे तुम्हारे कभी खिलते नहीं
माना की तुम बड़े हो,
होशियार हो
यार तुम बड़े ही.………

मेरे बारे में,  मुझे छोड़कर
सबसे मुखातिब होते हो
छोटी छोटी बातों में
बच्चों की तरह रोते हो
यार तुम बड़े हो
होशियार हो
 लेकिन तुम बड़े ही। …

दीवारों पर सीलन की तरह
मत आया करो
और इल्जाम  बारिशों पर
तो बिलकुल भी
मत  लगाया करो
क्यों किसी से डरते हो
तुम तो खुद
अपनी सरकार हो
यार तुम बड़े ही.………

खुदा का खौफ रक्खो
मेरे बच्चों को
अच्छे तोहफे
दिया करो
बहुत असर होता है,
बुजुर्गो की दुआएं
लिया करो
कहीं ऐसा न हो कि
तुम्हारे पुरखों के
हश्र को तुम्हारा
इंतिज़ार  हो

यार तुम बड़े ही पेचीदा से रिश्तेदार हो






शुक्रवार, 5 जून 2015

वहां कोई होता तो होगा

पहाड़ों की चोटियों पर रात को 
कोई सोता तो होगा 
यहाँ तक आते हैं 
वहां के सन्नाटे 
कोई जरूर वहां 
रोता तो होगा 
इन घुमावदार रास्तों पर 
कई बार पानी को 
उतरते देखा है 
कई बार यहीं से 
कोहरे को ऊपर 
चढ़ते देखा है 
किसी को तो 
जाती होगी ये रसद 
वहां ऊपर जरूर 
कोई होता तो होगा 
चोटियों पर पहले 
आती है धूप 
किसी को तो 
जगाने  के लिए 
रजाई तान कर रात भर 
कोई वहां सोता तो होगा