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बुधवार, 28 जुलाई 2010

याद

मेरी यादों का नशा और भी गहराता गया
जो याद भी नहीं था, वो सब याद आता गया

ये यूँ हुआ, वो यूँ हुआ, की जो हुआ
और नहीं हुआ वो सब भी याद आता गया

वो अचानक सी बारिश, वो सड़क, वो पेड़
और सब कुछ, जो भी था, याद आता गया

तुम्हारी खुशबू में बसे कुछ लम्हात
अब भी ताज़े हैं
उस दिन के बारिश की तरह
और पहले प्यार का ताजापन याद आता गया

रविवार, 4 जुलाई 2010

वक़्त

बिखर गया है वो ताश के पत्तों सा मेरे आगे

कल जो खुद को खुदा कहता था

वो जोड़ रहा है अपने मुकद्दर की तस्वीरें

जिसके हाथों में कभी मेरा मुकद्दर रहता था

वक़्त है , वक़्त है और सिर्फ वक़्त है

कहते है की पहले वक़्त भी उसी के हाथों में रहता था

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

तुम्हे आ जाना चाहिए



बुझती आँखों को अब क्या ख्वाब दिखाना चाहिए?

रात के मुसाफिर को अब घर आ जाना चाहिए !!


खुश्क मौसम की सर्द रातें अब मुझको सताती हैं

जो रात को उठकर लिखते थे

वो ख़त अब जलाना चाहिए !!


पहर दर पहर मैं देता रहा तुम को आवाजें

उन आवाजों को अब तो

लौट के आ जाना चाहिए !!



मेरे ख्वाबों की चाँद लाशें सड़ रहीं हैं आज भी

इन की चिता को आग लगाने

तुम्हे अब आ जाना चाहिए !!













शनिवार, 8 मई 2010

नयी कवितायेँ उधार की !

पिछले पूरे साल से मैंने कुछ नहीं लिखा है। आप इससे आलस्य भी कह सकतें हैं और महानगर में रहने की व्यस्तता भी कह सकते हैं। मैंने अपने ब्लॉग को जीवीत रखने के लिए एक कदम उठाया है । मैं अपने पिताजी के ब्लॉग से कुछ कवितायेँ ली हैं और इन्हें अपने ब्लॉग पे प्रेषित कर रहा हूँ। आप इन कविताओं को उनके ब्लॉग पे भी पढ़ सकते हैं। http://hameshaaa.blogspot.com/


इस कदम से मेरा ब्लॉग भी जीवीत रहेगा और आप लोगो को नयी और उम्दा किस्म की कवितायेँ पढ़ने मिलेंगी। जब स्वयं कुछ लिखूंगा तो आपको लिखने के स्तर से ही पता चल जायेगा और मैं स्वयं इमानदारी से आप को बता भी दूंगा।
तब तक आप लोग इन स्तरीय कविताओं का आनंद उठाएं।


प्राचीन महल का वैभव खंडहर में बदल गया है
कभी तन के खड़ा था हिमालय
सा आज रेत के पर्वत सा बिखर गया
है उसकी इस दशा पर सभी तो मौन हैं
कुछ हमदर्दी दिखाएँ
साथ में दो आसूं बहायें
ऐसा इस अपनो की दुनिया में बताओ तो भला कौन है
मैं हमदर्दी हो सकता हूँ
थोड़ा साथ दे सकता हूँ
पर आंसू बहाने को मुझसे मत कहना
मेरे आंसूं सुख चुकें हैं
कुछ जमा है फिक्स डेपोसित में
ताकि अपनी ही मौत पर फूल न चढ़ा सकूं
बाज़ार से खरीदा कर
तो अपने आंसू तो बहा सकूं
हाँ, मेरा स्नेह नही हुआ समाप्त
तुम ले लो इसको
क्यूँ की चौराहे की हवा अब सहन नही होती
मेरी लौ होती है विचलित
होती है कम्पित
मेरा स्नेह अभी नही हुआ समाप्त
तुम ले लो इसको
तुमको करना है प्रकाशित
आतीत के वैभव को
मेरा क्या!मैं तो टोटके क़ा दीपक हूँ
मेरा बुझ जाना ही अच्छा!
लो! मैं बुझता हूँ।