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बुधवार, 24 अप्रैल 2013

खफा

बही हुई  ज़िन्दगी को थामकर
गुज़रे हुए पलों को बांधकर
रोज़ थोडा जीने का सामान
तुम्हारे पुराने खतों से निकालता हूँ
तुम्हारे साथ ही तो जी रहा हूँ
यही सोचकर सारे अरमान निकालता हूँ
रात के दूसरे पहर जब चाँद को देखता हूँ
तुम भी  कहीं देखती होगी इसे
सफ़ेद चादरों पे पड़ा यही सोचता हूँ
अच्छा हुआ की कोई कसम , वादा ,वफ़ा
निभाई न गयी
खुदा ने बनाया तुमको
पर तुम मेरे लिए बनायीं न गयी
सुबह के बुझते दिये
अपनी जली हुई बाती का
मुझसे हिसाब माँगते है
मैं तुमसे सवाल पूछता हूँ
वो मुझसे जवाब मांगते हैं
मेरे ख्यालों से होकर गुज़रने वाले
तेरा सफ़र ही मेरी ज़िन्दगी का
फलसफा है
कल मैं तुझसे खफा था
आज तू मुझसे खफा है

खफा 

बुधवार, 10 अप्रैल 2013

अधजले दिये

रात के अधजले दीयों, तुम्हे क्या नींद में ही मौत आ गयी
सुबह का सूर्य भी न तुम देख सके, क्या तुम्हारी आग ही तुमको खा गयी

शेष था तुम्हारा इंधन सुबह की ओंस में भीगा हुआ
थे वो रात के मुसाफिर या सुर्ख हवा तुम्हे बुझा गयी

मैं तो देर तक जागा  रहा की मौत तुम्हारी देख लूँ
पर अँधेरी सर्द रात में मुझको भी नींद आ गयी


गढ़करी

जब से मेरे दुश्मन मेरा दर्द बन गए
खाकर  "हकीमो" की दवा हम भी मर्द बन गए

बदनामी के चूहे मेरा नसीब कुतर गए
चढ़ के हम भी शौहरत की सीढ़ी निचे उतर गए

कुछ सीखा था हमने भी दो चार पैसे छापना
छपते छपते मशीनों  के पहिये उतर गए

मेरे पैसे के बाग को दीमक सी लग गयी
आस्तीन के साँप सारे बागों में भर गए

चाकर मेरे घर के सारे, अफसरी कर गए
गढ़ को लूट कर मेरे, मुझे गढ़करी कर गए

अब अगर आओ

मेरे पुराने ख़त लौटने के लिए मत आना
सिलवटे चादर से हटाने के लिए मत आना

अबकी आना तो ले जाना अपनी खुशबू मेरे बदन से
और मेरे हाथो  से तुमसे मिलने की  लकीरें भी ले जाना

ले जाना मेरे ख्वाब सारे
और मेरे  आँखों से सुखा हुआ नमक  भी ले जाना

मैंने सहेज के रखी है गर्म सांसों की आहटे
रसोई में चूल्हे की बुझी आग भी रखी है

अबकी आना तो अपने आँचल में समेट  के
ये घर बार भी ले जाना ...