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गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

गलिचा

कटी फटी ज़िन्दगी के कई हिस्से मिल गए है
एक सर्द रात में इन्हे मखमली नज़्म में सिल दूंगा
उल्झे  रिश्ते के सीधे धागो से यादों के बटन ताकूंगा
कुछ अपने आंसुओं के छल्लों कि माला पिरोऊँ गा
अपने दर्द से ढाक दूंगा मैं  फटे हिस्से
तुम्हारी आँखों के बादामी  रंग मैं इसमें भरूंगा
रात गर काली गयी तो बादाखाने के
कुछ रंग भी आयेंगे नज़र
जो गर रही चांदनी तो फिर
फिर सब इसे  रिश्तों का
गलिचा समझ बैठंगे 

ख़त

तेरी खूशबू में बसे ये  ख़त
तेरी यादों कि आँधियों को समेटे ये ख़त
तेरी पलकों कि नमी से भीगे ये ख़त
तेरे मेरे बीच में केवल ये ख़त
अब जलाकर इन्हे कुछ न हासिल होगा
थोडा कुछ होगा भी तो बस धुआं होगा। 

बेक़रारी है

कैसी उलझन है ये कैसी बेक़रारी है
दिन तो गुज़र  जाता है यूँ ही
पर ये एक रात बहुत  भारी है

 मुद्दतों से मैंने कोई बाज़ी
खेली ही नहीं पर ज़िन्दगी
 यूँ ही रोज़ रोज़ हारी है

आइना देखा तो जाना आज
कि एक वक़्त गुज़र गया
तमाम उम्र यूँ ही तनहा गुज़ारी है

सीने में पहले कुछ अरमान सुलगा रखे थे
अब होटों पे रखे है और सुलगना जारी है

वो नशे भी अब खाली होकर कांच हो गए
बेक़रारी है बेक़रारी है बेक़रारी है