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गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

बेक़रारी है

कैसी उलझन है ये कैसी बेक़रारी है
दिन तो गुज़र  जाता है यूँ ही
पर ये एक रात बहुत  भारी है

 मुद्दतों से मैंने कोई बाज़ी
खेली ही नहीं पर ज़िन्दगी
 यूँ ही रोज़ रोज़ हारी है

आइना देखा तो जाना आज
कि एक वक़्त गुज़र गया
तमाम उम्र यूँ ही तनहा गुज़ारी है

सीने में पहले कुछ अरमान सुलगा रखे थे
अब होटों पे रखे है और सुलगना जारी है

वो नशे भी अब खाली होकर कांच हो गए
बेक़रारी है बेक़रारी है बेक़रारी है

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

Jindagi k andhere raston me bhi mera yeh safar jari hai.. har baaji hari maine par tujhe pane ki chahat me maine kheli har pari hai...tu hi sukun mera ..tu hi bekarari hai..