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शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

दिवाली की सफाई

दिवाली की सफाई में
जो खाली लिफाफे मिले थे
उनमे पुराने खत निकले है
उनमें कुछ उदासियाँ मिली है।
कुछ कुचले हुए एहसासों का
वजूद मिला है और सर्दियों
की एक अलसाई दोपहर मिली है।
कुछ अनकहीं नज़्में  मिली है
कुछ अध् लिखी ग़ज़लें मिली है।
कुछ इश्क़ के सौदे मिले हैं
और इश्क़ वाले ओहदे मिले है।
अश्कों का यूँ तो कोई
निशाँ मिला नहीं है लेकिन
सफहों पर कहीं-कहीं नमी मिली है।
कहीं बहुत अँधेरे मिले है और
कहीं-कहीं थोड़ी धूप खिली है।
एक वक़्त की खुशबु
आती है इन खतों से
शायद किसी ने बालिश्तों से
इन खतों पर अपना वक़्त नापा है।
इन लिफाफों पर कोई नाम तो नहीं है
लेकिन एक अधूरा सा एक पता है
बनारस का है शायद!!
यूँ तो वक़्त को रोक पाना
नामुमकिन है लेकिन
यूँ ही कुछ अटके हुए पल
मिल जाते हैं  दिवाली की सफाई में !!










बुधवार, 27 जुलाई 2016

पते गलत थे

मेरे ख्वाहिशों के खतों पर पते गलत थे
तुम जब तक मेरे साथ थे, मुझ से अलग थे

मैंने कई बार खुदा बदलकर भी देखा
तुमने जिनके सजदे किये वो सारे खुदा अलग थे

मंजिलों की बात तुम से तो फिजूल थी
जो लम्हे मैंने खर्च किये वो सब खर्चे अलग थे

मेरे रतजगों का हिसाब किसी जिल्द पर लिखा है
वो जो सफ़ेद से सफ्हे थे वो सब सफ्हे अलग थे




शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

मिलने मिलाने में

मिलने मिलाने में क्या रक्खा है
यूँ ही सर हिलाने में क्या रक्खा है

जब दिल ही नहीं मिलते दिल से
फिर हाथ मिलाने में क्या रक्खा है

दूर ही रहो तुम तो अच्छा है
सिर्फ एहसान जताने में क्या रक्खा है

तुम से दूरियां अच्छी है
मुलाक़ातों के बहाने है
ये मुगालते अच्छी है
हकीकत जताने में क्या रक्खा है

तुम्हे पता नहीं शायद

तुम्हे पता नहीं शायद
तुम अब भी वहीँ रहती हो
उसी जगह जहाँ मिले थे
कभी हम दोनों
मैं जब कभी उस घर के 
सामने से गुजरता हूँ
तो सर झुकाकर
इस्तेकबाल कर लेता हूँ
कभी वक़्त मोहलत देता है
तो चंद पल रूककर
उन खिड़कियों में
खड़े सायों को भी
निहार लेता हूँ।
उस घर के सामने
घास वाले मैदान में
उन झूलों पर
अक्सर मुझे
मिल जाया
करती हो। 
उस नीम के नीचे ही 
अब भी तुम्हारी भीगी
यादें रखी है
वो बदमाश बादल 
अब भी कभी कभी
उसी नीम के पास
मिलता है मुझे
उसे शायद आशिक़ों
से मिलने का सलीका
आ गया है।
पीर बाबा के दरवाजे
की जाली पर जो दो
धागे बांधे थे
एक अब भी वहीँ है
दूसरा कोई खोल गया
पिछले वीरवार को
किसी और की मुराद
शायद पूरी हुई है।
मैं अब भी गुरवार
अपने धागे से 
मिलने जाता हूँ ।
तुम सा कोई
दिखा था मुझे कल वहां
जानता हूँ ये तुम
तो नहीं हो
फिर भी आदतों
से पार पाना इतना 
आसां नहीं है

मेरा माजी

उन बीते सालों सा मुझसे हौंसला चाहता है
मेरा माजी अगले मोड़ पर
फिर एक बार मुझसे मिलना चाहता है

वो जो रख दिए थे किताबों में तुमने उस दिन
उन फ़ूलों सा आज फिर ये खिलना चाहता है

वक़्त की तहों में सिकते रहे कई ज़ख्म मेरे
कुछ ज़ख्मों को आज फिर ये सिलना चाहता है

वो जो ताउम्र पत्थर बन कर धड़का किए
आज वो पत्थर
दर पे मेरी पिघलना चाहता है

मेरा माजी अगले मोड़ पर
फिर एक बार मुझसे मिलना चाहता है।

वो तुम नहीं थे तो कौन था

वो जो मिलकर मुझ से जुदा हुआ
वो तुम नहीं थे तो फिर कौन था
वो सभी के दिल में बसा था जो
वो तुम नहीं थे तो कौन था।

वो खलिश और भी  बढ़ गयी
वो खुमार और भी चढ़ गया
वो जला के दीप जो प्रेम का
गुज़र गया यहाँ से जो
वो तुम नहीं थे तो कौन था।

ये जिक्र किसकी वफ़ा का था
वो हिज्र किसकी जफ़ा का था
कौन हुआ शहर में जफ़ा गार यूँ
जो मिलकर सबसे बिछड़ गया
वो तुम नहीं थे तो कौन था।

सोमवार, 16 मई 2016

उस  मकाँ  से अपने ख्वाब उठा लाया
वो गिरती हुई मंजिल से राज़ उठा लाया

वो बादल  निकले थे कहीं और जाने के लिए
उनके साथ ये एक और जाम उठा लाया

काफिलों को मिली न कभी मंजिले
ये जा जाकर मीलों के पत्थर उठा लाया

कहने  वालों ने उसे  कहा  सब  कुछ
वो  कुछ सुने  बिना ही आसमां उठा लाया

मैंने कई बार पूछना भी चाहा उससे
वो हरबार मेरी हसरतों का हिसाब उठा लाया


रविवार, 15 मई 2016

उम्रभर

याद कहाँ रहता है कोई उम्रभर 
जो आते हैं वही चले जाते है उम्रभर 

अब चंद मटर के दानो  के लिए 
राख कुरेदे क्या 
राख में ही तो दबाते रहे है उम्रभर   

कोई कहेगा तो सुनेंगे हम भी 
महफ़िल महफ़िल 
अपनी ही तो सुनाते रहे हैं उम्रभर 

तुम भी देखो तुम्हारे पास ही 
होंगी कुछ निशानियां 
मैं तो बस देता रहा हूँ यूँ ही उम्रभर 

कोई आवाज़  नहीं आती अब कहीं से
लौटकर यहाँ 
आवाज़ों के बाजार लगे थे जहाँ उम्रभर 


रविवार, 3 अप्रैल 2016

सहमी सहमी सी मेरी ख्वाइशें जैसे
पूस की रात में भीगा हुआ गरीब कोई
दिल की तलहटी में चीखते दर्द के सन्नाटे
जैसे दुश्शासन के सामने द्रोपदी खड़ी कोई
बहुत खौफनाक मंजर है आज की रात का
आज की रात आँखे बंद कर के सो जाते हैं
तुम आज रात तुम ही रहो
हम आज रात तुम हो जाते है

मन में एक द्वन्द है

मन में एक द्वन्द  है
उठ खड़ी तरंग है
काफिले ही काफिले
सारा जहाँ मलंग है
मन में हर भाव से 
एक युद्ध हो रहा
जो थक गया
वो हट गया
जो झुक गया
वो कट गया
पलाश के पल्लवों से
आ रही सुगंध है
मन में एक द्वन्द है
मन में एक द्वन्द है
भीष्म के ही सामने तो
जल गए संविधान
नग्न सी थी द्रोपदी
कौरव खड़े थे वक्ष तान
भीम की भुजाओ में
हस्ति की फिजाओं में
हो रहा था शुन्य गान
धर्मराज की भी आज
धर्म बुद्धि मंद है
मन में एक द्वन्द है
मन में एक द्वन्द है

वक़्त

उँगलियों से गिरती
वक़्त की बूंदों को
कलम की स्याही
में लिपटाकर मैं,
अक्सर सफहों में
जप्त कर लेता हूँ ।
मैंने कई बार
यूँ ही पागलपन में
तुमको भी जप्त
करना चाहा था
वो सफहों पे जहाँ
स्याही फैली है न
वही तुम्हारे निशाँ है
मेरी डायरी के कुछ
पन्ने कटे फटे है वहाँ
ऐसा लगता है कोई
भागा हैं यहाँ से
पुराना वक़्त साथ लिये।

शनिवार, 5 मार्च 2016

चाह

अब जहाँ मैं हूँ  
वहां से वापस
आ नहीं सकता 
चाहता तो हूँ अब भी 
तुम्हे उतना ही
 पर अब तुम्हे 
मैं पा नहीं सकता
 
तुम्हारे मेरे दरमियां 
ये जो फासले है 
छू  तो सकता हूँ  इन्हे 
पर सिमटा नहीं सकता 

उन किताबों के सफहों से 
वक़्त की सौंधी खुशबु 
आती है मुझे 
उन किताबों को आज भी 
पढ़ तो सकता हूँ लेकिन 
उन्हें जला नहीं सकता 

गर मुझे मिलो कभी तो 
मुझे अनदेखा करना 
मैं दुनिया को रिश्ते 
बता तो सकता हूँ लेकिन 
उन्हें समझा नहीं सकता 

रविवार, 31 जनवरी 2016

सपने

मुझे मेरे सपने अब मिला नहीं करते
कई मौसम बदले मेरे शहर के लेकिन
फूल वो दिलों वाले अब खिला नहीं करते

पत्थर हो गए इंसा सब के सब
अब यहाँ ईद पर गले मिला नहीं करते

बच्चों सी है बातें इनकी
इनकी बातों का अब हम गिला नहीं करते

तार तार  हो गया है जिस्म छिल कर
जख्म कोई भी हो अब हम सिला नहीं करते।

शनिवार, 30 जनवरी 2016

तुम्हारे शहर मैं

मुझे छुपकर पढ़ने वाले
तेरे सीने के लफ्ज़ मैंने
सब सफ़ेद कागजो पर
ज्यों के त्यों उतारे है।
लिखी है तेरी चूड़ियों
की खनक और तेरी
बालियों की चमक
भी लिखी है मैंने
समुन्दर किनारे की
हवा में उड़ती तेरी
ज़ुल्फ़ों की महक
भी लिखी है मैंने
कई बार कई सफ़हे
खाली रख दिए यूँ ही
तू मिलेगा कभी तो
पूछूंगा कि कैसे गुजारे
कई साल मेरे बिन तूने
फिर उन खाली सफ़होँ
पर तुम्हारा खालीपन
भी लिखूंगा शायद
मैं जानता हूँ कि तू भी
कहीं लिखता रहता होगा
मेरे सीने की बुझी आग
और मेरे खालीपन की
कोई कहानी भी कहीं
लिख रखी होगी तूने
गर कभी मिले हम
तो बता देना की
खाली सफ़होँ का
मोल क्या होता है
तुम्हारे शहर  में

सोमवार, 25 जनवरी 2016

मेरे अंदर कौन है

मेरे अंदर कौन है बाहर कौन
मुझे जाना कहाँ है अब ये बतलाये कौन

शराबों के कई दौर यूँ ही ज़ाया हो गए
बात वो पते की अब सबको बतलाये कौन

वो गाँव सब के सब अब शहर हो गए
पर नींद वो गावों की अब शहरों में उगाये कौन

कल मयकदों से निकलकर  सब खुदा हो गए
दीवार ओ दर मस्जिदों की देखने अब रोज़ रोज़ जाये कौन

दोस्त तुमसे दोस्ती मेरी वैसी ही है गहरी
पर कौन जाए रोज़ मिलने किसी से
और रोज़ किसी को फ़ोन लगाये कौन।

मेरे अंदर कौन है बाहर कौन
मुझे जाना कहाँ है अब ये बतलाये कौन

अंशुमान