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शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

तुम्हे पता नहीं शायद

तुम्हे पता नहीं शायद
तुम अब भी वहीँ रहती हो
उसी जगह जहाँ मिले थे
कभी हम दोनों
मैं जब कभी उस घर के 
सामने से गुजरता हूँ
तो सर झुकाकर
इस्तेकबाल कर लेता हूँ
कभी वक़्त मोहलत देता है
तो चंद पल रूककर
उन खिड़कियों में
खड़े सायों को भी
निहार लेता हूँ।
उस घर के सामने
घास वाले मैदान में
उन झूलों पर
अक्सर मुझे
मिल जाया
करती हो। 
उस नीम के नीचे ही 
अब भी तुम्हारी भीगी
यादें रखी है
वो बदमाश बादल 
अब भी कभी कभी
उसी नीम के पास
मिलता है मुझे
उसे शायद आशिक़ों
से मिलने का सलीका
आ गया है।
पीर बाबा के दरवाजे
की जाली पर जो दो
धागे बांधे थे
एक अब भी वहीँ है
दूसरा कोई खोल गया
पिछले वीरवार को
किसी और की मुराद
शायद पूरी हुई है।
मैं अब भी गुरवार
अपने धागे से 
मिलने जाता हूँ ।
तुम सा कोई
दिखा था मुझे कल वहां
जानता हूँ ये तुम
तो नहीं हो
फिर भी आदतों
से पार पाना इतना 
आसां नहीं है

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