मस्तक पटल से यादों की धुंध साफ़ नहीं करता
मैं अब भी पश्मीने की मुंडेर पे रहता हूँ
बहते कोहरे में चाँद को देखना शौक अब भी है मेरा मेरा
मैं अब भी सर्द रातों में सुखी नज़्में जलाता रहता हूँ
कोई गिला, शिकवा, शिकायते गायी न गयी
ये अभी अच्छा ही हुआ कि
कोई वादा, वफ़ा, कसम निभायी न गयी
सूखे पत्तों की तरह अपने ही पेड़ की शाखों के
निचे बिखरता रहता हूँ
मैं वक़्त को तेह कर के उम्र की दराजों में
रखता रहता हूँ
ये वक़्त मेरी उम्र की तहों में सिक कर
जब तजुर्बा बन जायेगा
मैं इस पश्मीने की मुंडेर से उठ जाऊंगा
और उस चाँद के पास जाकर बैठूंगा
ऐसे ही कुछ ख्वाब है जिन्हे
अक्सर कागजो पे लिखते रहता हूँ मैं
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