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मंगलवार, 26 अगस्त 2014

उदास

मेरे शब्द उदास है
मन के किसी कोने में
रूखे हुए कुम्हले हुए
अपने दिन काट रहे है
मन के आँगन में
अब ये खेलते नहीं है
दिन ब दिन सिकुड़ जाते है
पर किसी की आहट पे
अब ये फैलते नहीं है
काली स्याह रात सा
मुक़द्दर रहा है इनका
चाँद सा मेहबूब रहा
तो उछले नहीं तो
ज़िन्दगी तिनका तिनका
अतीत की मशालों में
जलकर इन्होने
कई महफिले
रोशन की है अब
कुरेदता हूँ तो बस
राख है महफिले
कहीं नहीं है
वो जो मुह पे
रहते है दो चार
मेरे खास है
वैसे बहुत दिनों से
मेरे शब्द उदास है

1 टिप्पणी:

AAJ - (A) KAL ने कहा…

Liked your poem and perhaps ....could understand aswell!