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रविवार, 3 अप्रैल 2016

सहमी सहमी सी मेरी ख्वाइशें जैसे
पूस की रात में भीगा हुआ गरीब कोई
दिल की तलहटी में चीखते दर्द के सन्नाटे
जैसे दुश्शासन के सामने द्रोपदी खड़ी कोई
बहुत खौफनाक मंजर है आज की रात का
आज की रात आँखे बंद कर के सो जाते हैं
तुम आज रात तुम ही रहो
हम आज रात तुम हो जाते है

मन में एक द्वन्द है

मन में एक द्वन्द  है
उठ खड़ी तरंग है
काफिले ही काफिले
सारा जहाँ मलंग है
मन में हर भाव से 
एक युद्ध हो रहा
जो थक गया
वो हट गया
जो झुक गया
वो कट गया
पलाश के पल्लवों से
आ रही सुगंध है
मन में एक द्वन्द है
मन में एक द्वन्द है
भीष्म के ही सामने तो
जल गए संविधान
नग्न सी थी द्रोपदी
कौरव खड़े थे वक्ष तान
भीम की भुजाओ में
हस्ति की फिजाओं में
हो रहा था शुन्य गान
धर्मराज की भी आज
धर्म बुद्धि मंद है
मन में एक द्वन्द है
मन में एक द्वन्द है

वक़्त

उँगलियों से गिरती
वक़्त की बूंदों को
कलम की स्याही
में लिपटाकर मैं,
अक्सर सफहों में
जप्त कर लेता हूँ ।
मैंने कई बार
यूँ ही पागलपन में
तुमको भी जप्त
करना चाहा था
वो सफहों पे जहाँ
स्याही फैली है न
वही तुम्हारे निशाँ है
मेरी डायरी के कुछ
पन्ने कटे फटे है वहाँ
ऐसा लगता है कोई
भागा हैं यहाँ से
पुराना वक़्त साथ लिये।