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बुधवार, 27 जुलाई 2016

पते गलत थे

मेरे ख्वाहिशों के खतों पर पते गलत थे
तुम जब तक मेरे साथ थे, मुझ से अलग थे

मैंने कई बार खुदा बदलकर भी देखा
तुमने जिनके सजदे किये वो सारे खुदा अलग थे

मंजिलों की बात तुम से तो फिजूल थी
जो लम्हे मैंने खर्च किये वो सब खर्चे अलग थे

मेरे रतजगों का हिसाब किसी जिल्द पर लिखा है
वो जो सफ़ेद से सफ्हे थे वो सब सफ्हे अलग थे




शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

मिलने मिलाने में

मिलने मिलाने में क्या रक्खा है
यूँ ही सर हिलाने में क्या रक्खा है

जब दिल ही नहीं मिलते दिल से
फिर हाथ मिलाने में क्या रक्खा है

दूर ही रहो तुम तो अच्छा है
सिर्फ एहसान जताने में क्या रक्खा है

तुम से दूरियां अच्छी है
मुलाक़ातों के बहाने है
ये मुगालते अच्छी है
हकीकत जताने में क्या रक्खा है

तुम्हे पता नहीं शायद

तुम्हे पता नहीं शायद
तुम अब भी वहीँ रहती हो
उसी जगह जहाँ मिले थे
कभी हम दोनों
मैं जब कभी उस घर के 
सामने से गुजरता हूँ
तो सर झुकाकर
इस्तेकबाल कर लेता हूँ
कभी वक़्त मोहलत देता है
तो चंद पल रूककर
उन खिड़कियों में
खड़े सायों को भी
निहार लेता हूँ।
उस घर के सामने
घास वाले मैदान में
उन झूलों पर
अक्सर मुझे
मिल जाया
करती हो। 
उस नीम के नीचे ही 
अब भी तुम्हारी भीगी
यादें रखी है
वो बदमाश बादल 
अब भी कभी कभी
उसी नीम के पास
मिलता है मुझे
उसे शायद आशिक़ों
से मिलने का सलीका
आ गया है।
पीर बाबा के दरवाजे
की जाली पर जो दो
धागे बांधे थे
एक अब भी वहीँ है
दूसरा कोई खोल गया
पिछले वीरवार को
किसी और की मुराद
शायद पूरी हुई है।
मैं अब भी गुरवार
अपने धागे से 
मिलने जाता हूँ ।
तुम सा कोई
दिखा था मुझे कल वहां
जानता हूँ ये तुम
तो नहीं हो
फिर भी आदतों
से पार पाना इतना 
आसां नहीं है

मेरा माजी

उन बीते सालों सा मुझसे हौंसला चाहता है
मेरा माजी अगले मोड़ पर
फिर एक बार मुझसे मिलना चाहता है

वो जो रख दिए थे किताबों में तुमने उस दिन
उन फ़ूलों सा आज फिर ये खिलना चाहता है

वक़्त की तहों में सिकते रहे कई ज़ख्म मेरे
कुछ ज़ख्मों को आज फिर ये सिलना चाहता है

वो जो ताउम्र पत्थर बन कर धड़का किए
आज वो पत्थर
दर पे मेरी पिघलना चाहता है

मेरा माजी अगले मोड़ पर
फिर एक बार मुझसे मिलना चाहता है।

वो तुम नहीं थे तो कौन था

वो जो मिलकर मुझ से जुदा हुआ
वो तुम नहीं थे तो फिर कौन था
वो सभी के दिल में बसा था जो
वो तुम नहीं थे तो कौन था।

वो खलिश और भी  बढ़ गयी
वो खुमार और भी चढ़ गया
वो जला के दीप जो प्रेम का
गुज़र गया यहाँ से जो
वो तुम नहीं थे तो कौन था।

ये जिक्र किसकी वफ़ा का था
वो हिज्र किसकी जफ़ा का था
कौन हुआ शहर में जफ़ा गार यूँ
जो मिलकर सबसे बिछड़ गया
वो तुम नहीं थे तो कौन था।