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मंगलवार, 26 अगस्त 2014

उदास

मेरे शब्द उदास है
मन के किसी कोने में
रूखे हुए कुम्हले हुए
अपने दिन काट रहे है
मन के आँगन में
अब ये खेलते नहीं है
दिन ब दिन सिकुड़ जाते है
पर किसी की आहट पे
अब ये फैलते नहीं है
काली स्याह रात सा
मुक़द्दर रहा है इनका
चाँद सा मेहबूब रहा
तो उछले नहीं तो
ज़िन्दगी तिनका तिनका
अतीत की मशालों में
जलकर इन्होने
कई महफिले
रोशन की है अब
कुरेदता हूँ तो बस
राख है महफिले
कहीं नहीं है
वो जो मुह पे
रहते है दो चार
मेरे खास है
वैसे बहुत दिनों से
मेरे शब्द उदास है

बुधवार, 20 अगस्त 2014

अपने आप से

आज जो थोड़ा वक़्त मिला
तो गौर से आइना देखा
और जाना की वो शख्स
जो तमाम उम्र मेरे
साथ साथ चलता रहा था
ज़िन्दगी की खीच तान में
कहीं पीछे रह गया है
मैं अकेला बहुत
अकेला जी रहा हूँ

मैं जब बहुत छोटा था
तो तुम मेरे साथ हो लिए थे
नए नए खेल
सिखाते  थे
तुम मुझको
एक बार जब छत की
मुंडेर पे चढ़ गया था
तो तुमने मुझे
पकड़ लिया था अपनी
दोनों कलाइयो में
मुझे जप्त कर लिया था
मैं जब कभी अँधेरे से
डर  जाता था तो तुम
मुझे होंसला दिया
करते थे

स्कूल में भी तुम
मेरे साथ ही थे एकदम
रातों को जागकर जब
मैं पढता था तो तुम
कभी कभी आ जाते थे
मुझे देखने के लिए
तुमने ही मुझे उसूलों
की जगह जज़्बातों को
निभाना सिखाया है

वो भूरे आँखों वाली लड़की
जो मुझे बहुत अच्छी लगती थी ,
तुमने ही तो बताया था की
मुझे उससे प्यार हो गया है
याद है उससे घंटो बाते करने के बाद
मैं घंटो तुम्हे उसकी एक ही बात
बार बार बताया करता था
पर तुम न कभी बोर हुए
न कभी इर्रिटेट हुए

बारिशों में घर से निकाल  देते थे
तुम मुझे भिगोने के लिए
और इसी तरह कई बार
मैंने भी अकेले मैं
आंसुओं से भिगोया है तुमको

मैं ये मानकर ही चल रहा था
की तुम मेरे साथ ही हो
पर आज अकेले में
कोई नहीं है
न तुम्हारी ख़ामोशी है
ना ही तुम्हारे सन्नाटे
और आइना देखा तो जाना कि
अकेला बहुत अकेला जी  रहा हूँ मैं !!






शनिवार, 5 जुलाई 2014

परिचय

कागज़ पर कलम से दिल के शोर लिखता हूँ
मुझसे जब उलझ जाते है ज़िन्दगी के सवाल
मैं खामोशी से बहुत घनघोर लिखता हूँ

सुलझा रहा हूँ उलझनों को,
ज़िन्दगी को कमिंग सून लिखता हूँ
बादल बारिश सावन सब देखे है मैंने
पर आँख नम हो जाये तो मानसून लिखता हूँ

आँधियों में फड़फड़ाता सहर का चिराग लिखता हूँ
रेत, पानी सब आग बुझाने के लिए है
मैं समंदर की गीली रेत पर आग लिखता हूँ

ज़िन्दगी के तजुर्बे से जवानी की शान लिखता हूँ
खत्म करता हूँ  जब लिखने के सिलसिले
आखिरी में अंशुमान लिखता हूँ




सोमवार, 26 मई 2014

ओल्ड ऐज होम

असंख्य झुर्रियों से
जरा सा ऊपर
दो कैटरेक्ट वाली आँखें
अब किसी का
इंतज़ार नहीं करती
ना कोई आया कभी
यहाँ न कोई आएगा
अपनो का खौफ
अब इतना है
कि अकेलापन
अब क्या रुलाएगा

अतीत के गौरवशाली
दिन मन के किसी कोने में
दुबक कर बैठ गए है
किसी को बताऊँ तो सही
पर वक़्त पे अपना नाम
भी याद नहीं आता
बच्चों के नाम याद है
रोज़ पेपर के पीले
पन्नो  पर  छपते है
पर शर्मसारी की
वजह से किसी को
नहीं बताता

मैं पोस्ट ऑफिस
में बाबू था
रबर की चप्पल में
अर्धशतकीय धागे डालकर
बच्चो को  अंग्रेजी
जूते  पहनता था
बच्चों को कॉलेज में
नए कपडे नसीब हो
तो सालों साल
वो बड़े चेक की
शर्ट चलाता था

जब बड़े को
बड़े कॉलेज में
दाखिला लेना था
तो उसकी माँ ने झट से
उतारकर अपने कंगन दे दिए थे
मैंने भी दो चार दोस्तों से
कुछ पैसे उधार ले लिए थे
वक़्त बीता तो माँ ने अपने
हाथों को कांच के कंगन से
ढक लिया था
मैंने भी दोस्तों का पैसा वापस
उनके सामने रख दिया था

जब छोटे की बारी आयी
तो माँ के पास कंगन नहीं थे
मैं रिटायरमेन्ट के पास था
दोस्तों ने हाथ खड़े कर दिए
वो भी अपनी जगह सही थे
इससे पहले की वो सोचे
अपने मंगलसूत्र के बारे में
मैं निकल लूंगा पीएफ अपना
समझाया मैंने उसे इशारे में
बच्चे ही अपनी संपत्ति है
बच्चे ही सच्चा धन है
बच्चों को अगर पढ़ा  भी
न पाये तो फिर क्या जीवन है

पढ़ लिखकर बच्चे बड़े हो गए
अपने पैरों पर दोनों खड़े हो गए
हम भी दिन में छाती पर
अख़बार रख कर सो जाते थे
कैसे बड़ा किया बच्चों को
सबको  गर्व से सुनाते थे

बच्चे बड़े हो गए
समझदार हो गए
बड़े शहरो के
कंक्रीट के जंगलों में
कहीं खो गए

पहले पैसे आते रहे
फिर केवल खत आने लगे
दिन में देखे सपनो के बादल
बिन बरसे ही जाने लगे
एक दिन
आंसुओं का सैलाब
ऐसा आया कि
किराये का घर था
वो बह गया
माँ के पास कुछ था नहीं
मेरे पास भी बस
तजुर्बा ही रह गया

अब तो यही आशियाना है
अब बस यहीं बसर होगी

बचे कुचे दिन बस सांस
लेने  में यहीं कटेंगे
अपनी अपनी मटकी
ले  आये हैं
हम दोनों अब
यहीं मरेंगे

सुबह शाम यहाँ सब्ज़ी देने
मख़्दूम आता है
कुछ देर बात कर लेता है
तो दिल बहल जाता है
कल कहता था कि
जल्दी जाना है
घर पर अंधी माँ
के लिए खाना बनाना है

अंधी माँ का खाना?
हाँ, बाबूजी !
गरीब के पास केवल तन होता है
और माँ बाप ही जीवन का
असली धन होता है

दांत भींचकर मैंने
सोच लिया कि
आंसुओं को बहने का
अब कोई बहाना न दूंगा
मर कर राख भी हो जाऊं
तो फिर राख भी बच्चों को
हाथ लगाने न दूंगा












शुक्रवार, 23 मई 2014

पीछे का कमरा

अब किसके पास वक़्त है यहाँ
अब कौन जनाजे में रोता है
आज आफिस में काम  बहुत है
और एक दिन तो सबने मरना होता है

 ये तो इस कॉलोनी में रोज़ का लगा रहता है
आज किसी का बाप मरा है और कल किसी का चौथा है
उनके जीते जी न गए हम कभी
अब जनाजे में जाने से क्या होता है.

यूँ ही नहीं मैंने अपनी
ये दुनिया बनायीं है
अपनी सांस से  सांस रगड़कर
इस घर की इंट इंट बनायीं है
देखो इस हवादार  मकान को
इसका  मारबल मकराना से लाये थे 
दीवारों को सजाने के लिए 
कारीगर आगरा से बुलाये  थे 
बाहर के कमरे से सनराइज
और टेरेस से सनसेट होता है

पीछे का कमरा????????
उसे बंद ही रहने दो यार
पीछे का कमरा तो
बूढ़े माँ बाप के लिए होता है
हाँ, वो छोटी सी रसोई भी
उन्ही के लिए है
उन बर्तनो को भी हम
हाथ नहीं लगाते
एक छोटू रखा है इनके लिए
वो ही इन बर्तनो
को धोता है

माँ बाप को हम जनरली
मेहमानो से नहीं मिलवाते
माँ जो कम सुनती है
अपने में खो जाती है
बाप खासते ही रहते है
तो सिचुएशन
ऑक्वर्ड हो जाती है

कुछ गरीब रिश्तेदार है
जो कभी कभी इनसे
मिलने आते है
ये जाये  और जाकर
अब रहे छोटे के घर
हम दोनों अब
ये ही चाहते है

इनकी बातों में
बच्चों का बहुत
समय ख़राब होता है

आजकल की ज़िन्दगी में 
ये कहाँ एडजस्ट कर पाते है
एक उम्र के बाद तो माँ बाप
बस कहने के लिए ही रह जाते है

उनके ज़माने अलग थे
लोगो के पास बहुत वक़्त था
जरूरते भी बहुत कम थी
और कम में ही बसर हो जाती थी
मेरे कपडे छोटा पहनता था
और एक ही निक्कर
कई साल चल जाती थी
सात रुपये किलो दूध और
बीस रुपये लीटर खाने का
तेल आता था
कुछ भी मीठा बना हो घर में
पड़ोसियों में बांटा जाता था

पडोसी साले दगा दे गए
कभी फुर्सत में बताऊंगा

बातें ये बरसोँ की है
जेहन में चिपकी है ऐसे
जैसे बस  ये परसो की है

खैर !! जीवन है ये
और ये ऐसे ही
 चलता रहता है
आँखों के कोरो से रिसता हूँ
देर तक जब मेरा बड़ा बेटा
मुझसे आकर ये कहता है
कि पापा पीछे के कमरे में
अबकी दिवाली
आपका फेवरट ब्लू
कलर करवाएंगे
अबकी जो दादा दादी
गए चाचा के यहाँ
तो फिर इसे आपका
इस्टडी रूम बनाएंगे

हाथों से छूटता मेरा वर्त्तमान
अब मुझे मेरे भविष्य
के पास लाने लगा है
टेरेस से सनसेट के बाद
का अँधेरा अब पूरे घर
पर छाने लगा है

पीछे के कमरे का खौफ
अब मुझे सताने लगा है
 

 








सोमवार, 14 अप्रैल 2014

ख्वाब

मस्तक पटल से यादों की धुंध साफ़ नहीं करता 
मैं अब भी पश्मीने की मुंडेर पे रहता हूँ 
बहते कोहरे में चाँद को देखना शौक अब भी है मेरा मेरा 
मैं अब भी सर्द रातों में सुखी नज़्में जलाता रहता हूँ 
कोई गिला, शिकवा, शिकायते गायी न गयी 
ये अभी अच्छा ही हुआ कि
 कोई वादा, वफ़ा, कसम निभायी न गयी 
सूखे पत्तों की तरह अपने ही पेड़ की शाखों के 
निचे बिखरता रहता हूँ 
मैं वक़्त को तेह कर के उम्र की दराजों में 
रखता रहता हूँ 
ये वक़्त मेरी उम्र की तहों में सिक कर 
जब तजुर्बा बन जायेगा 
मैं इस पश्मीने की मुंडेर से उठ जाऊंगा 
और उस चाँद के पास जाकर बैठूंगा 
ऐसे ही कुछ ख्वाब है जिन्हे 
अक्सर कागजो पे लिखते रहता हूँ  मैं

बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

अच्छा होगा

आँखों से बहो और दिल से निकल जाओ तुम तो अच्छा होगा 
रहो मेरी तन्हाई से दूर और मुझे ना याद आओ तुम तो अच्छा होगा 

अच्छा होगा तुम्हारा ना मिलना मुझसे हमेशा के लिये 
मेरे कमरे से अपनी यादें समेट जाओ तुम तो अच्छा होगा 

मेरी आँखों को अब रोशनी की आदत भी नहीं 
मेरी अंखों के आईनो से अपना अक्स ले जाओ तुम तो अच्छा होगा 

कोई बहाना नहीं है

तुमसे बात करने का अब कोई बहाना नहीं है
और ब्लॅंक कॉल करने का अब ज़माना नहीं है

दिन के जुगनू रातों को आवारा से फिरते लेकिन 
ना दिन को फुरसत है और रातों का भी अब ठिकाना नहीं है 

एक अर्सा हुआ यारों की मेहफिलों का चाँद हुए 
सब्जी मॅंडी से आगे अब अपना आना जाना नहीं है 

तेरे खत और तस्वीर तेरी फाड़ दी थी उसी दिन 
सोना है सुकून से, अब बीवी से कुछ छुपाना नहीं है 

मेहफ़ूस रखना अपने दिल के किसी कोने में तुम मुझको 
सच्चे आशिक़ है हम, तुम्हारे बच्चों के मामा नहीं है 





भीड़

तुम केवल एक भीड़ हो 
एक चिल्लाने वाली भीड़ का हिस्सा हो
तुम केवल चिल्ला सकते हो 
दात भीच सकते हो 
तुम एक निराशक भीड़ हो
तुहारा अपना कुछ नहीं 
जो है सब भीड़ है
चिल्लाते हो उनके खिलाफ 
जो तुम्हारी भीड़ ने चुने थे कभी
तुम्हारा वज़ूद भीड़ है 
और आधार भी भीड़ है
अकेले तो तुम इतने सालों से 
कहीं किसी बियाबान में 
उन्ही की भीड़ का हिस्सा थे 
जो कहानी तुम अब बता रहे हो समाज को
उसी कहानी का तुम भी एक किस्सा थे 
वज़ीर से शह पाकर प्यादों ने भी 
सीख लिया है अब हर चाल चलना 
ये भीड़ का रूख है अभी 
और आगे  फिर तुम्ही को है सम्हलना 
खुद अपनी ही सीमाये बना ली है तुमने 
अब अवसरवादी भीड़ भी बना ली है तुमने
तुम एक पढ़े लिखे इंसान हो
जवान हो या किसान हो 
थोड़ा सम्हलो और अपने अंतर्मन में झाको 
इस भीड़ को और भीड़ मत बनाओ तुम
बड़ी मुश्क़िल से साठ सालों में इस भीड़ में
इंसानी समाज की खूबियाँ देखी है 
पतन भी देखा और तरक्की भी देखी है  
तुम्हारा म्हातवाकांशी होना बुरा नहीं
बुरा है उस पर भीड़ की शक्ति का तंदूर बनाना 
और बुरा है उस तंदूर पर सत्ता की रोटी सेकना!!! 



मंगलवार, 21 जनवरी 2014

AAP se kuch kehna hai

२०११ में जब केजरीवाल जब मंच पर  खड़े हुए थे तब राजनीती के चेहरे पर भ्रष्टाचार के मुहासे का इलाज करने वाले स्पेशलिस्ट डॉक्टर कि तरह नज़र आये थे लेकिन अब लोकतंत्र के पटल पर अब वो खुद मुहासा बन गए है।  ईमानदारी के सर्टिफिकेशन का जो नेक्सस वो चला रहे थे उसका दरसल भांडा फूट गया है।  कांग्रेस ने चुनाव के बाद जो जाल बिछाया था उसमे केजरीवाल अब फंसते नज़र आ रहे है।  दिल्ली कि सियासत न उनसे निगली जा रही है न चबाते ही बन रही है।  वो एक सफेदपोश है जो अपनी गलती छुपाने के लिए दूसरे कि दाड़ी में तिनके निकाल रहे है।

शुरुआत से शुरू करे तो आम आदमी तक जाना पड़ेगा।   चुनावी वादा पहले खुद के लिए किया कि कोई मंत्री लाल बत्ती नहीं लगाए,गा महंगी कार में नहीं घूमेगा, सरकारी बंगला नहीं लेगा।  आप सचिवालय चले जाईयें वादा खिलाफी देख लीजिये।  मैं कुछ नहीं कहूंगा। जहाँ तक सरकारी बंगले ई बात है तो वादा निभाया गया है। शाब्दिक रूप से कम से कम वादा निभाया है। बंगले नहीं है लेकिन फ्लैट है और मेरी नज़र में बंगले से ज्यादा खूबसूरत है। केजरीवाल भी इस फ्लैट कि मोह माया में आ ही गए थे लेकिन फिर मीडिया चैनल्स ने उनकी वादे वाली क्लिपिंग्स दिखा दिखा कर उन्हें फ्लैट न लेने पर मजबूर कर दिया।   अजीब सी बात है जिस मीडिया ने उन्हें बनाया है अब वो ही उन्हें खींच रही है।  दरसल सच्चा विपक्ष मीडिया ही होता है।  

 केजरीवाल उवाच ऐसे छोटी छोटी बातों पे ध्यान देंगे तो फिर बड़ा उद्देश्य कैसे पूरा होगा।  गाड़ी ले ली कोई बात नीं।  घर ले लिए कोई बात नीं।  इसे वादा खिलाफी मन नहीं माना जायगा।  लेकिन सर सोमनाथ भारती देश के इतने बड़े सम्मानीय व वरिष्ठ वकील जिन्हे अपैक्स कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने सम्मानित किया है वो अगर जासूस बन कर दिल्ली कि सड़कों पर महिलाओं को रस्सी से बांधेंगे प्रताड़ित करेंगे तो फिर कैसे चलेगा। सोमनाथ जी गए थे छब्बे बनने और लौट कर आये अबे बन कर। पुलिस को काम सिखाना चाह रहे थे, दरसल मीडिया से पुलिस का स्टिंग करवाना चाहते थे लेकिन उलटे धरे गए।  फंस गए तो फिर केजरीवाल को मोर्चा सम्भालना पड़ा।  जैसे हार्डवेयर इंजीनियर हर यूजर को पहले कंप्यूटर ऑफ कर के ऑन करने के लिए कहता है उसी तरह केजरीवाल पहले धरने करते है फिर बात करते है, सो धरना शुरू हो गया।  जनता तो टोइंग है केजरीवाल कि जेब में है , एक आवाज़ पे अपना काम छोड़कर आ जायेगी।  लेकिन जनता तो सचिवालय से कब कि ऊब के जा चुकी है।  पहले सर्कार बनाये या नहीं फिर आपकी शपथ में खामा खा कि शपथ और फिर जनता दरबार में जनता बड़ी बेआबरू होकर निकली।  अब जनता बार बार थोड़ी न आएगी आपके वरगलाने में. आप सड़क पे सोये या अपने घर में जनता को अब फर्क नहीं है।  २६ जनवरी को छुट्टी है।  सुबह सरकारी ऑफिस में लड्डू मिलेंगे और टीवी पे परेड आएगी आप हमारा मजा ख़राब मत कीजिये।  अगर सचमुच में मुख्यमंत्री है तो बंद गले का सूट सिलवाने दाल दीजिये २६ जनवरी का मुख्यमंत्री का ड्रेस कोड है।  और मेहरबानी करेंगे तो टीवी पर भी २६ जनवरी को कोई गांधी जी कि पिक्चर देख लेंगे।

धन्यवाद्